सूरज की गरम नरम किरणें धरती के अलग अलग कोने को जगा देती हैं। और फिर बादलों के साथ लुक्का छिपी खेलने में मस्त हो जाती है। मैं एक ऐसे कोने पे ख़ड़ी उन नटखट किरणों का इन्तज़ार कर रही हूँ!
धीरे धीरे एक आदत सी बन जाती है। एक चाहत सी उमढ़ आती है। इस गरमाइश में पिघलने की जैसे लत लग जाती है।
लेकिन यह धरती अनिश्चल है। यह रुक नहीं सकती।और इसलिए मेरी सूरज की गरम नरम किरणें हर मौसम में अपनी जगह बदल लेती हैं। मैं भी उनका साथ निभाती हूँ, और धरती की तरह मैं भी चलती जाती हूँ।
बस इस सब में सालों साल बीत जाते हैं। और हम इस चक्रव्यूह में सारा जीवन व्यस्त कर देते हैं।
फिर एक दिन, हम भी धरती में मिल जाते हैं। सूरज की किरणें हमको फिर भी ढूँढ लेती, और उस चाहत और आदत को क़ायम रखती हैं ।