I looked at the bougainvillea from my kitchen window. I bought it towards the end of last summer, finally got to planting it in fall, and then it was soon bare. Not a single leaf survived. Yet, it bounced back this spring. Back to its glory. The poem was born this morning, as I looked at the bougainvillea and my messy yet colorful living room. I bounced back from several set backs this week. Just like the bougainvillea.
वो भी दिन थे, और यह भी दिन हैं
और बीच में कहीं गुमसुम हम हैं
वो भी दिन थे
जब पेढ़ों पे पत्ते नहीं दिखाई देते थे!
और आज उन्ही शाखाओं पर गुलाबी फूल मुस्कुराते हैं
वो भी दिन थे जब घर ख़ामोश था और आँगन वीरान था।
और आज खिलखिलाती हँसी और छोटे छोटे पैरों का शोर
सारा दिन दिल लगाए रखता है
वो भी दिन थे जब रातें लम्बी थी
और सुबह का कोई निशान नहीं था
और यहाँ आजकल किस्से कहानियों के चक्कर में, दिन छोटे पढ़ जाते हैं
वक़्त ना ही वो रुका था, ना ही यह थमेगा
यह कारवाँ तो ऐसे ही चलता रहेगा
और हम इस कारवाँ के मुसाफ़िर, यूँ ही हर मोड़ पर संभलते रहेंगे।
वो भी दिन थे, और यह भी दिन हैं
और बीच में कहीं गुमसुम हम हैं