कोहरे में लिपटी थी आज की सुबह
यकीनन ऐसा लगा जैसे कोई ख्वाब देख रही हूँ मैं
दूर दूर तक एक सफ़ेद चादर बिछी थी
सूरज का भी आज उठने का इरादा नहीं था
दूर से गाड़ियों की टिमटिमाती बत्तियां देखि तो ऐसा लगा,
जैसे तारे ज़मीन पर एक सीधी लकीर में बिखरे हों
माहौल चाहे गुम सुम और थोड़ा संगीन था लेकिन
रंगो की कमी बिलकुल मेहसूस नहीं हो रही थी
नीला, सुरमई, भूरा और धुँधला था सब कुछ
जैसे किसी ने एक ही कूंचे में पूरी तस्वीर बना दी हो
आसमान आज तफ्सील का मौहताज नहीं था
और हवा का जूनून भी ज़ाहिर नहीं था
चंद मासूम ख़यालों में मसरूफ थी आज की सुबह
धुँधली आँखें थी या धुंधला था समां, किसे मालूम
खुली आँखों से अगर कुछ ख्वाब देख भी लिए तो क्या
आखिर अपनी इस लियाक़त का हमें इल्म तो हुआ 🙂