रास्ता लम्बा सही, पर क़ाफ़िले रंगीन तो है।
मेरे लिए, ऐ ज़िंदगी तेरे इरादे इतने संगीन क्यूँ है ?
कभी कभी हर लम्हा खिंचा तना बसर होता है
और कभी, आँख झपकी नहीं, और दिन गुज़र जाता है
यह जो चंद लम्हे, जो मैं अपने ही दिन से, ख़ुद ही चुरा रही हूँ,
और थोड़ा सा अकेलापन जिसे मैं कुछ सदियों से जुटा रही हूँ
आख़िर किस लिए?
अपने वजूद का मक़सद ढूँढने में तो अरसे गुज़र जाएँगे
फ़िलहाल तो मुंतज़िर हूँ मैं इस शाम को ढालने के लिए
खुली आँखों से देखे हुए ख़्वाबों को हक़ीक़त में तब्दील होते देखा है,
इतना दिया है ज़िंदगी ने फिर भी, अपनी किसमत की वफ़ादारी पर यक़ीन नहीं होता
हर दिन की शुरुआत एक अजीब से डर से होती है,
जैसे हिसाब लगा रहा है कोई, इन कुछ ख़ुश नवाँ घड़ियों का
एक कमी है जिसको लफ़्ज़ों में ब्यान नहीं किया जा सकता
एक ऐसी ख़्वाहिश जिसका इल्म हुआ उनके जाने के बाद
अपनी क़ाबिलियत का कभी गुमान नहीं किया हमने, बस चाहा था कि फकर की स्साँसे वो भी भरते
और,उनकी कुर्बनियों का कुछ क़र्ज़ अदा हम भी करते
चले गए इससे पहलेकी कोई शिकवे होते
वक़्त बहुत कम था उनके और हमारे दरमियाँ
कुछ साल जो साथ बिताए उसमें हमने समझ लिया
रास्ते लम्बे नहीं, पर क़ाफ़िले रंगीन तो थे
बहुत खूब।
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