दीवाली की अगली सुबह
सरसों के तेल से काले मिटटी के दीये
घर में एक मीठी सी खुशबू
कुछ फूलों की महक और कुछ अगरबत्ती की सुगंध
एक अजीब सी शांति, थोड़ी सी अनकही उदासी भी।
सुबह यह भी है और वह भी थी
जब “उठ जाग मुसाफिर भोर भयि अब रैन कहाँ जो सोवत है.…” सुन कर ही उठा करते थे.
और पापा के कदमों की आवाज़ से सुबह की शुरुआत होती थी
उठ कर बालकनी से सड़कों पर जले हुए पटाखों का ढेर देखना
बुझे हुए दीयों की बाटियाँ और मोम बत्ती की बचे हुए ठूंठ समेटना
और फिर माँ की आवाज़ की नाश्ता तैयार है।
अधूरी यादों से उभरी आज की सुबह
धीरे धीरे एहसास हुआ की शायद कही दूर, बहुत दूर एक सुबह इतेज़ार करती है आज भी ……
चाय और सूखे रस्क से दिन की हुई शुरुआत
और मिटटी के दीयों की ढेरी से थोड़ा काजल चुरा लिया
सुना है उदास आँखें, बिना काजल के अक्सर, अनजाने में हकीकत बयान कर देती हैं
Something told me before i was opening this blog, that it will have a note about the past days! Very well composed!
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Perfect. 🙂
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